Tuesday, May 4, 2010

थोड़ी सी जो पी ली है

थोड़ी सी जो पी ली है, ऑंखें ये नशीली हैं
दो पेग ने ही कर डाली तबियत जरा ढीली है

हम गुम हैं ख्यालों, खोये खाली प्यालों में
उलझे हैं सवालों में, खुद की जुबां सी ली है

सब पूछें बड़े भाई, क्यूँ लब पे है तन्हाई
जामों ने करी dry सोचों की पतीली है

सिगरेट से बनी सीढ़ी, अधरों में पड़ी बीडी
सारी ढूंढती फकीरी, माचिस है न तीली है

कोई गीत सज रहा है, जाने क्यूँ उलझ रहा है
अरे फोन बज रहा है, उसने भी क्या पी ली है

हमसे कह रहे बातें, दर्दे-दिल की वारदातें
नैना टंगे हैं जाते, सर में गडी कीली है

कोई पेग बनता जाये, कोई पेग चढ़ाता जाये
कोई पेग गिरता जाये, पतलून हुई गीली है

कोई उल्टा बक रहा है, कोई उल्टी चख रहा है
कोई यूँ बिलख रहा है, मातम-ए-शेक्चिल्ली है

कोई शख्स रम में रम है, व्हिस्की का भी हरम है
वो वोदका के ब्रम्हा, यहाँ जूस रसीली है

कोई देता नहीं चादर, सब हो गए हैं मादर
सोएंगे यहीं फादर चाहे जमीं गीली है

कोई मार गया झापड़, कोई चूम गया आकर
मैं खा रहा था पापड़, वो मोजों की झिल्ली है

क्यूँ मन बहक रहा है, कुछ तो महक रहा है
कुछ तो दहक रहा है, मेरी शर्ट रंगीली है

बनियान तन रही है, ऐंठन सी बन रही है
सांसों में सन रही है, कैसी हवा नीली है

मैं फिर से उड़ रहा हूँ, पंखों से जुड़ रहा हूँ
बिन ब्रेक मुड़ रहा हूँ, कोई छैल छबीली है