Friday, August 1, 2008

महबूबा हो तो ऐसी…. की तैसी

मतवारी नजरों पे कजरे का घेरा, कजरे ने फिर क्यूँ हमको नजर लगा छेड़ा.
माथे पे केसरिया बिंदिया भी सोहे, लो अंधियारी भौहों में सूर्य अस्त होवे.
होठों पे छाई है लाली मनभावन, भगवन भी खूब मनावत गोरी संग फागुन.
लट में जो घूँघर हैं लहर लहर मचलें, कितनी प्यारी सी भँवरे, हम कैसे बच लें.
नयनों में बिम्ब बसाके मन ही मन ध्यावें, छाया कही धुल न जाये, रो भी न पावें.
बांहों के बंधन में हम यूँ बंध जाएँ, गले से न बोली निकले, केवल मिमियाएं.
कानों में चमके है सोने की बाली, बालों का विग पहने है टकली ये कानी.
दांतों में चमके है tide की चमचम, न ब्रश न पेस्ट कोई, न ही शुगर फ्री गम.
the first 5 lines were written in 3 hours while i was waiting for my flight to bangalore. then i got bored of the romanticism and wrote the next three lines in 3 minutes :) .